चित्रकूट (उत्तर प्रदेश) के जंगलो में इस बार मधुमखियाँ जल्दी आना शुरू हो गयी थी। मैंने और शुभम ने २७ मार्च, २०२३ को वहां जाने का प्लान बनाया और वहां के गांव वालों से बात करके सारी वयवस्था करवाना शुरू कर दिया था। अभी मै बस्तर में था और २५ मार्च को दिल्ली पहुंचना था जहाँ से मुझे ट्रैन से चित्रकूट पहुंचना थ। शुभम रॉयल बी ब्रदर्स की टीम के साथ कतर्नियाघाट (उत्तर प्रदेश) के जंगलो का आस पास शहद निकलवा रहे थे और उनको लखनऊ से २७ मार्च को ट्रैन लेनी थी चित्रकूट के लिए।
साजो सामान लेकर मै शाम ८:०० बजे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचता हूँ तो पता चला की ट्रैन निज़्ज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन से है और महज ३० मिनट बजे है ट्रैन छूटने में। बाहर निकल कर फटाफट टैक्सी लेकर स्टेशन के लिए भागता हूँ लकिन वहां पहुंच के पता चला की ट्रैन ५ मिनट पहले छूट जा चुकी है। मन बहुत उदास हो गया , पिछले १५ दिन से बस्तर के जंगलो में जड़ी बूटियों और शहद का काम करवा रहा था , थकान बहुत ज्यादा थी , सोचा था ट्रैन में आराम से सोते सोते चला जाऊंगा।
शुभम को फ़ोन किया तो पता चला की वो लखनऊ से ट्रैन में बैठ चुका है। खैर , वहां से मै आनंद विहार बस स्टैंड आ गया की कोई बस मिल जाये लकिन पता चला की बस सुबह जाएगी। मै ज्यादा समय बरबाद नहीं करना चाहता था। वापस निजजामुद्दीन रेलवे स्टेशन आकर वहां से झाँसी का जनरल डिब्बे का टिकट लेकर रात ११:०० बजे ट्रैन में चढ़ गया। प्लान ये था की रात २ बजे तक झाँसी पहुंच जाऊंगा और फिर झाँसी से चित्रकूट की बस ले लूंगा। झाँसी से चित्रकूट की दूरी ३०० किलो मीटर है जो बस दवारा ६ -७ घंटे में पूरी होती है।
मै लगभग रात २:३० बजे झाँसी पहुंच गया और चाय वगैरह पीकर बस स्टैंड चला गयाऔर वहां से ३:३० बजे चित्रकूट की बस मिल गयी। चित्रकूट पहुंचते पहुंचते लगभग दोपहर के बारह बज गए , वहां शुभम मेरा इंतज़ार कर रहे थे।
चित्रकूट से हमें मानिकपुर जाना था जो वहां से लगभग ४० किलोमीटर था। मानिकपुर से फिर हमें रानीपुर गांव जाना था जो मानिकपुर से लगभग २५ किलोमीटर था।
खैर , थकान से बुरा हाल था हमदोनो का और हमने चित्रकूट में एक गेस्ट हाउस लेकर एक दिन वही रूककर अगले दिन मानिकपुर जाने का का प्लान किया। ७०० रुपए का एक ठीक ठाक गेस्ट हाउस रेलवे स्टेशन के पास मिल गया, लंच करके हमलोग अपना बिस्तर पकड़ के सो गए। शाम में हमलोग चित्रकूट धाम और आस पास के मंदिर घूमने गए, ये देख कर आश्चर्य चकित रह गए की नदी के लगभग हर पुल के नीचे १० - १२ मधुमखी के छत्ते लगे थे। इससे आप अंदाजा लगा सकते है की चित्रकूट की जंगलो का इकोसिस्टम मधुमखियो के लिए कितना शानदार होगा।
अगले दिन हमने मानिकपुर के लिए बस ली और दोपहर १:०० बजे मानिकपुर पहुंच गए। अब हमें मानिकपुर से रानीपुर गांव जाना था जो लगभग २५ किलोमीटर था। मानिकपुर से जंगल की शुरुआत हो जाती है और सिर्फ एक बस सुबह ८ बजे मानिकपुर से रानीपुर जाती है और वही बस शाम ३ बजे वहां से आती है , उसके अलावा कोई और साधन नहीं है। खैर हमारी ३ लोगो की छोटी सी टीम पहले ही रानीपुर पहुंच चुकी थी तो हमें ज्यादा दिकत नहीं हुई , हमारी टीम का एक बंदा गांव से स्प्लेंडर बाइक लेकर पहले ही मानिकपुर आ चुका था और अब हम तीनो को ढेर सारे सामान के साथ एक ही बाइक पे रानीपुर जाना था।
यहाँ से आगे की यात्रा अब खतरनाक थी और थोड़ा डर भी लग रहा था। चित्रकूट मध्य प्रदेश से सटा हुआ डिस्ट्रिक्ट है और इस बेल्ट में नक्सली बहुत एक्टिव रहते है। नक्सलियों द्वारा किडनेपिंग बहुत आम बात है यहाँ और हमें ये भी बताया गया की इस जंगल में पिछले महीने लगभग २० बाघ छोड़े गए थे और २ आदमखोर बाघ इस जंगल में कुछ दिनों से बहुत एक्टिव थे, दोनों बाघो ने मिलकर ८ औरतो का , २ बच्चो का और ६ गायो का शिकार पिछले १ महीनो में किया है। रास्ते के नाम पर महज पगडंडिया थी और कई बार मुश्किल हो जाता था रास्ते का पता निकालना, खतरनाक जंगल से होते हुए हम लगभग १ घंटे में रानीपुर गांव पहुंच गए। यहाँ हमने एक लोकल ठेकेदार के यहाँ रहने की व्यवस्था करी थी। पूरे गांव में मिटटी के मकान थे और छतें खप्पर और छप्पर की थी , पहली बार हमने यहाँ खप्पर का दोमंज़िला मकान देखा। पूरा इलाका बहुत पिछड़ा हुआ था , लगता था हम ५० साल पहले के भारत में आ गए है।
दोपहर के ३ बजे थे , चाय वगैरह पीकर हमने अपनी टीम और ४ गांव वालो को लेकर जंगल में वो जगह देखने निकल पड़े जहाँ मधुमखियो ने छतों को लगाया था। ये जगह गांव से ७ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पे थीऔर हमें पैदल जाना था। अभी हम मुश्किल से २ किलोमीटर चले होंगे की बहुत तेज़ बारिश होने लगी , हमने थोड़ी देर एक पेड़ के नीचे बारिश के रुकने का इंतज़ार किया लकिन फिर लगा की बारिश जल्दी रुकेगी नहीं। अँधेरा भी होने लगा था , लगभग १ घंटा इंतज़ार करने के बाद हमलोग भीगते हुए गांव वापस आ गए और अगले दिन शहद निकलने का प्लान बनाया। शाम को आग जला कर, चाय की चुस्कियों के साथ गांव वालों के साथ बैठ कर वहां की ढेर सारी कहानिया सुनी और जड़ी बूटियों के बारे में पता किया।
मोबाइल फ़ोन का नेटवर्क कभी कभी आता था और लाइट भी नहीं थी। खाना खा कर हमलोग सोने चले गए , रात भर रुक रुक कर बारिश होती रही और तेज़ हवाएं चलती रही।
चूकि मकान कच्चा था और दरवाज़ा भी बस नाम मात्र का था तो खटपट होने पे कई बार लगता था की कमरे में कोई जानवर आ गया है।
सुबह उठे तो मौसम साफ़ था और धूप निकली हुयी थी। नास्ता करके और दोपहर का खाना लेकर हम ८ लोग सुबह ९ बजे शहद निकालने निकल पड़े।
लगभग २ घंटे चलने के बाद हम एक छोटी से पहाड़ी पे पहुंचे जहाँ देखना एक ही जगह ३० - ३५ मधुमखियों ने छत्ते लगाए थे। दिक्कत ये थी की ये सारे छत्ते चट्टान के नीचे लगे थे जो हवा में लटक रहे थे और वहां पे सीधे पहुंचना मुश्किल था।
हमारी टीम ने ऊपर जाके रस्सी की सीढिया बनाई और नीचे लटका दी। दूसरी टीम ने नीचे घास वगैरह को इकठा करके धुँवा करने के लिए मसाल बना ली और रस्सियों के सहारे ऊपर चढ़ने लगे।
जैसे जैसे धुँवा ऊपर जा रहा था, मखियाँ इधर उधर उड़ने लगी और चूकि कल बारिश हुई थी तो आज ये जंगली मखियाँ बहुत उत्तेज्जित और आक्रामक हो रक्खी थी। हालांकि हमसब ने आसपास धुँवा कर रखा था , नेट वाली कैप और बाकी ड्रेसेस पहन रखे थे लकिन पता नहीं कैसे मखियों ने अपना रास्ता निकाल लिया था और सभी लोगो पे अटैक कर दिया था। अफरातफरी मच गयी वहां और सभी जान बचा कर भागने लगे। अब तक हर किसी को १५ - २० मखियों ने डंक मार चुकीं थी और लगातार पीछा कर रही थी।
शुभम को भी १५ -२० डंक लग चुके थे, वो बचने के लिए मछरदानी ओढे जमीन में चुप चाप लेता लेटा हुआ था और ढेर सारी मखियाँ उसके ऊपर मडरा रही थी। टीम का एक बंदा मखियों से बचने के लिए पास के तालाब में कूद गया था लकिन जब भी वो सिर बाहर निकालता , मखियाँ ऊपर मडरा रही होती। मुझे भी चहेरे और हात में कई जगह काट चुकीं थी और किसी तरह धुँवा और तेज़ करने की कोशिश कर रहा था। रह रह कर किसी न किसी क चीखने का आवाज़ आती रहती थी , ये सब लगभग १ घंटा चलता रहा। मैंने किसी तरह से धुँवा तेज़ किया और आस पास की और घास को उठा कर एक घट्टर बना के उसमे आग लगाई और शुभम के पास गया। धुएं से मखियाँ शुभम के ऊपर से जाने लगी थी , फिर उसको उठाया और बाकी टीम के पास जा जा के मखियाँ हटाई। हम सभी के शरीर में कई जगह सूजन आ गयी थी और दर्द भी था।
वहां से लगभग १ किलोमीटर दूर जा के हमसब ने हाथ मुँह धोकर घर से लाया हुआ लंच किया और तय किया की थोड़ी और सावधानी बरतते हुए फिर से चलते है। हालांकि ये सब हमलोगो की जिंदगी के रोज़मर्रा के चीज़े है लकिन आज मामला ज्यादा खराब था। वहां पहुंच के देखा की ढेर सारे धुएं की वजह से छत्तो से मखियाँ लगभग जा चुकीं थी। हमने वहां और भी धुँवा किया और फिर से सब ऊपर चढ़ने लगे छत्ता काटने के लिए।
शहद निकालने के ०२ नियम है
एक- सिर्फ ५० % - ६०% छत्ता काटा जाता है
दूसरा - कभी भी छत्ते के उस भाग को नहीं काटा जाता है जिसमे लार्वा होते है
इससे होता ये है की छत्ता काटने के थोड़ी देर बाद मखियाँ वापस आकर छत्ता बनाने लगती है।
तेज़ी से हाथ चलाते हुए टीम ने अगले २ घंटे में अपना काम पूरा कर लिया हालांकि अब मखियाँ फिर से आना शुरू हो गयी थी।
अगले १५ मिनट में हम सबने सारा सामान और छत्तो को उठाया और जल्दी जल्दी वहां से निकल गए। हमारी टीम का एक बंदा जो तालाब में कूद गया था वो किसी तरह अपनी जान बचाते हुए गांव पहले पहुंच गया था और गांव वालो को लेकर हमारी तरफ आ रहा था। बारिश भी फिर से आ रही थी। गांव पहुंच कर सभी लोगो ने एक जड़ी बूटी का लेप लगाया जो एक गांव वाला लाया था और फिर हमसब बैठ के सभी को दिन भर का खिस्सा सुनाने लगे। आज हमने लगभग १३० - १५० किलोग्राम शहद निकला था। अभी पता चला है की अंदर जंगल में एक जगह ३०० - ४०० किलोग्राम शहद मिल सकता है। अभी यहाँ ३ दिन और रुकना है और उम्मीद है इस बार १ टन के आसपास शहद ले जा पाएंगे । कर्वी से एक बोलेरो जीप मंगा ली है जो सामान सहित हमलोगो को आगे ले जाएगी।
आगे की यात्रा भाग २ में प्रस्तुत है।