मंडला -बिछिया (मध्य प्रदेश) : भाग - ३

मंडला -बिछिया (मध्य प्रदेश) : भाग - ३

आज की सुबह बहुत ही सुहानी थी, मौसम खुला हुआ था और सूर्य देव के भी दर्शन हो रहे थे।
मंडला से बिछिया जाने के लिए हमने तैयारी की और यह सोचकर हम बहुत खुश थे कि आज हम हनी हार्वेस्टिंग करेंगे। मंडला से बिछिया जो की ४४ किलोमीटर है, पूरा रास्ता जंगल और नदियों को पार करते हुए है बिछिया पहुंचते पहुंचते मौसम ने फिर से करवट ली और पूरा बारिश का माहौल बन गय। जब हम बिछिया पहुंचे तो ताबड़तोड़ बारिश होने लगी यह देखकर हमें समझ आ गया कि आज तो हनी हार्वेस्टिंग नहीं हो पाएगी। आसपास के लोगों से पता करने पर पता लगा कि आज यहाँ एक बाजार लगता है जिसमें ट्राइब्स जंगल में पैदा हुई जड़ीबूटी, सूखे फूल, महुआ, शहद वगैरह जाकर भेजते हैं और अपना जीवन यापन करने के जरूरी सामान वहां से खरीदती है। यह जानकर उस जगह जाने का उत्साह भर गया । एक छोटी सी साफ सड़क पर हम चलते जा रहे थे, बहुत सारे छोटे-छोटे गांव जंगल, छोटे नदी के पोखर चिड़िया देखने को मिल रही थी। रास्ते में हमें कई आदिवासी लोग दिखे जो अपना सामान बाजार में बेचने के लिए ले जाते हुए। एक -दो से हमने बात करने की कोशिश भी की लकिन वह झिझक रहे थे तो आगे जाकर एक ऑटो रिक्शा चालक से हमें पता चला कि यह गोंड टरबाइन ट्राइब्स का इलाका है यह लोग ज्यादातर बाहर के लोगों से घुलाते मिलते नहीं है। सुंदर दृश्य को देखते हुए मोबाइल कब आ गया हमें पता ही नहीं चला वहां पहुंच के हम वन विभाग के कार्यालय में पहुंचे जहां से हमने पता किया की बाजार कब तक लगने वाला है , पता चला बाजार तो 3:00 बजे लगेगा और हम 11:00 बजे ही पहुंच गए थे। फॉरेस्ट गार्ड से बात करते हुए हमें पता चला की कुछ दूर-दूर ही बंगा जनजाति के एक बस्ती है और वह लोग बहुत खुल के बाहर लोगों के बाहर के लोगों से बात करते हैं यह सुनकर हम उनसे मिलने चले गए। रास्ते में चलते-चलते हमने आम के पेड़ पर चापड़ा की चटनी वाली लाल चीटियों के बहुत सारे घोसला देखें। यह चीटियां को मरोड़ कर अपने मुंह से निकलने वाली लार से चिपक कर बनाते हैं जो की एक कुदरत का करिश्मा लगता है। आसपास के लोगों से पता करने पर पता चला कि यहां के लोग चापड़ा की चटनी नहीं बनाते, यहां से ढाई सौ किलोमीटर आगे छत्तीसगढ़ में जनजातीय बनाती है ।

थोड़ी सी आगे पहुंचे तोह देखा की गांव के लोग तेंदूपत्ता इकट्ठा करने जंगल घर में गए है और दरवाजे पर बैठी दादी अम्मा ने बताया इस साल के इस समय किसी प्रकार की खेती नहीं हो पाती इसलिए प्रधानमंत्री वन जन योजना के अंतर्गत गांव वाले एकत्रित होकर तेंदु के पत्ते तोड़ के और उसकी ५० -५० पत्तों की गाड़ियां बनाकर और सुखाकर फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को भेजते हैं। एक गद्दी के चार रुपए प्राप्त होते हैं इस योजना के कारण उन्हें अपने गांव से पलायन नहीं करना पड़ता और वह गांव में रहकर ही अपनी जीविका कमा पाते है।

 

दादी ने हमें काली मटकी में बनाकर एक चाय दी जिसमें मटकी और धुएं का बहुत ही अच्छा स्वाद आ रहा था और उन्होंने हमें कहा कि हम यहां पर थोड़ी देर विश्राम करें सकते है । आधा घंटा विश्राम करने के बाद वह लोग आ गए , सिर पर मोटी मोटी गठिया लादे क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े, सभी थे। लोगों ने गठरिया नीचे रखी और हमारे आने का कारण पूछा। हमने उन्हें बताया कि हम बिछिया में जंगली शहद निकालने आए हैं, मौसम खराब होने की वजह से हम नहीं जा पाए आज और यहाँ घूमने चले आए। वार्तालाप के दौरान वक्त का कुछ पता ही नहीं चल रहा था, बातों ही बातें में जीवन की कई पर्ते खुलती चली गई और हम उनके जनजीवन में रंग से गए। थोड़ी देर में उन्होंने हमें बताया कि यहां पर एक वृक्ष है जिसमें बहुत सारे चमगादड़ों का डेरा रहता है और उन्होंने हमें कहा कि वह हम चाहे तो वह हमें दिखाने ले चलेंगे। यह सुनकर हम जोर से भर गए और जाने के लिए तैयार हो गए वहां पहुंचकर हमने देखा की १० - २०- ५० नहीं बल्कि २००- ४०० चमगादड़ एक ही पेड़ पर विश्राम कर रहे है।

उसी पेड़ के ऊपर एक ऑस्ट्रेलिया से लाया हुआ यंत्र भी लगा हुआ था जो किसी रिसर्च के लिए साइंटिस्ट की एक टीम ने लगाया था। उन लोगोंसे भी पता करने पर नहीं पता चल पाया तो हमने सोचा कि आगे जाकर वन विभाग से ही पता करेंगे फिर हम वनविभाग की तरफ वापस लौटने लगे तभी पता चला कि वहां जंगल में अचानक आग लग गई है और सारा वन
विभाग वहां चला गया है किसी भी जानकारी व्यक्ति के न होने के कारण हमें वहां से निराशा ही लौटना पड़ा तब तक दिन के ढाई बज चुके थे। हमने सोचा कि चलो जाकर थोड़ा बाजार का दृश्य देखे , जब हम वहां गए तो देखा की बहुत सारी रंग बिरंगी सुन्दर सुन्दर मिठाइयां बाजार में सजी हुई थी जैसे जलेबियां , गुलाबजामुन , शक्करपारे और भी कई अनेक प्रकार की चीजें और कई दुकानों पर साबुन , मसाले, सब्ज़िया वगैरह थी। जब हम 100 मीटर और अंदर गए बाजार में तो देखा वहां कई दुकानें थी जो महुआ, शहद, जड़ी बुटिया वगैरह खरीद रही थी और वहां कई ट्राइब्स के लोग महुआ और शहद बेचने आए थे। आज भी यहाँ बार्टर सिस्टम की तरह खरीद फरोख्त होती है जैसे की आदिवासी लोग जंगलो की उगी हुई चीज़ो के बदले रोजमर्रा का सामान खरीद रहे थे । हमने कुछ आदिवासी लोगो से बात करने की कोशिश की जैसे बोर्न आदिवासी। इन जनजातोयो की औरतें हाथ और पांव में गुदवाती हैं, बहुत शर्मीली होती हैं और बाहरी व्यक्ति से घुलना मिलना पसंद नहीं करते, साड़ी को घुटनों तक फोल्ड करके पहनती हैं , हाथ और पांव में चांदी के कड़े रहते हैं जिससे आप उन्हें भीड़ में अलग से पहचान सकते हैं। आगे चलने पे एक कुम्हार की बस्ती मिली वह लोग गोण्ड जनजाति के थे गोण्ड जनजाति जंगल के बाहरी एरिया में रहती है और इस जनजाति के लोग काफी मिलनसार होते है। बोर्न जनजाति जंगल की गहराइयों में रहते हैं और ज्यादा बातचीत नहीं करते वही गोण्ड जनजाति के लोग बहुत मिलनसार लगे। बाजार में बोन्ड आदिवासी के भी लोग मिले और बातों ही बातों में बताया की हमारे यहाँ बड़े देवता की पूजा होती है जो की एक विशेष प्रकार की लकड़ी के डंडे को अपने आंगन में लगाकर पूजा करते हैं। थोड़ा और जन पर पता चला कि बड़ा देवता असली में शिव का ही एक रूप है। हमने यह पूछा कि अगर आपके यहां कोई बीमार हो जाता है तो उसका इलाज कैसे करवाया जाता है तो उन्होंने बताया कि उनके गांव में एक व्यक्ति रहते हैं जिन्हें जड़ी बूटियां की बहुत अच्छी जानकारी है उन्होंने यहां तक भी बताया कि उनके वहां गर्भवती महिलाये बच्चे के जनम के अगले दिन ही काम पर भी चली जाती है और नदी में खुद भी नहा के बच्चे को भी नहलाती है। हमने उनसे पूछा कि आपको यह जीवन बहुत कठोर नहीं लगता वह कहने लगे कि हमें यही जीवन सबसे अच्छा लगता है वह अपनी जवानी में एक दो बार काम करने के लिए मंडला भी गए पर वहां काम करके उन्हें संतुष्टि ना मिली। वह कहते हैं कि हमारा जीवन जंगल और नदी के साथ ही जुड़ा है जब भी हम जंगल और नदी से दूर जाते हैं तो हम अंदर ही अंदर खत्म होने लग जाते हैं। तभी गांव के एक और व्यक्ति वहां आ गए, गांव में अगले दिन होने वाले विवाह समारोह के लिए उन्होंने हमें आमंत्रित किया और कहां की आप जरूर आइएगा हमने उन्हें बताया कि हमने यहां से बिछिया जाना है और बिछिया से वापस आना कल बहुत मुश्किल होगा यह बात सुनकर उन्होंने कहा कि आज रात आप यही रूककर विवाह की कुछ झलकियां देख सकते है। निमंत्रण सुनकर हम तुरंत मान गए। जैसे कि यह नक्सलाइट प्रभावित इलाका रहा है, हमें अपने होटल वाले को संपर्क करके बताना पड़ा कि हम रात को नहीं आ पाएंगे जिससे वह परेशान ना हो कि हम कहां रह गए। तारों की छांव में हम पहले भी कई बड़ी सोते रहे हैं लकिन आज की रात की बात कुछ और है दिन भर की गर्मी के बाद रात की ठंडी हवाएं और चंद्रमा की चांदनी की वजह से बहुत ही मोहन लग रहा था। यहाँ बिजली का कोई प्रबंध नहीं है इस वजह से आसपास कोई लाइट भी नहीं थी और चंद्रमा की चांदनी चारों तरफ रात को लोगों से काफी देर तक बातें होती रही जिस पर उन्होंने बताया कि अब सड़के बनने से और थ्री व्हीलर चलने से उन्हें काफी राहत मिल गई है नहीं तो बाजार के लिए उन्हें 10 किलोमीटर पैदल ही चलना पड़ता था।

रात को खाने में कच्चा सरसों का तेल रोटियां कटे हुए प्याज आलू नमक मिर्च डाल के थे खाना खाया जो बहुत ही साधारण लकिन स्वाद अत्यंत ही अच्छा था। रात के 8:00 बज गए थे और सब लोग सारा काम समाप्त कर चुके थे लोगों से बात करने को पता चला कि आपको फिर भी हमसे बातचीत करते हुए थोड़ा विलंब हो गया वरना तो वह लोग 7:00 बजे तक भोजन भोजन करके लेट जाते हैं यह सुनकर हमने भी सोने का निश्चय किया। अगले दिन सुबह प्रातः 4:00 बजे कि हमें उठा दिया गया और सब लोगों के साथ हम नदी पर नहाने चले गए। वहां छोटी सी पूजा करी गई जिसमें जंगली फूलों को पानी में डाल कर वन देवी को अर्पण किया जाता है। वहां से निकाल कर हम घर पहुंचे जहां पर सिर्फ पत्तों से सजाई हुई एक छत बनाई गई थी जिसके नीचेशादी से जुड़े हुए अनुष्ठान किए जाने थे, घर के बाहर सजे हुए बैल तैयार थे और दीवारों पे शादी के स्वागत की कुछ झलकियां बानी थी। अब तक सुबह के 8:00 बजे थे , इन लोगों को अलविदा कह के हम बिछिया के लिए निकल पड़े, अंदर ही अंदर शादी में सम्मिलित नहीं होने का बहुत ही मलाल था।

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