शादी से लौटकर हमने गेस्ट हाउस में रात्रि विश्राम किया और सुबह उठ कर अपनी टीम के सदस्य दुरक्षा के साथ कुम्हड़ी गांव आ गए और सुबह की चाय गांववालों के साथ पी...अब समय था पातालकोट की गहरी खाइयों में उतरने का जहां हमारी टीम के द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार शहद की उपलब्धता पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।
टीम के 6 सदस्यों, दुरक्षा,रामलाल,हनुमान,बल्लभ,योगेश्वर और अर्जुन के साथ हम और विकास किट बैग और पूरी तैयारी के साथ चल दिए खाइयों की तरफ दिए। वैसे तो पहाड़ियों पर चढ़ कर उतरने का अनुभव हमने अनेकों बार किया किया था पर चूंकि ये पहला अनुभव था जहां हमे पहले खाइयों में उतरना था जिनकी गहराई कुम्हड़ी गांव जो पहाड़ी की चोटी पर था वहां से लगभग 2000 मीटर थी।
पथरीले रास्तों और काली चट्टानों के बीच उतरते हुए हमें बहुत ही सावधानी बरतने की जरूरत थी क्योंकि जरा सा पैर फिसलने पर पहला पड़ाव घाटियों की गोद में था।
सावधानी के साथ अपने आप को सुरक्षित रखते हुए हम एक साथ खाइयों की तरफ बढ़ रहे थे और लगभग 500 मीटर उतरने के बाद हम पहुंचे घनी पहाड़ियों के बीच बने एक मंदिर पर जिसे अम्मा माई मंदिर के नाम से जाना जाता है और दो तीन घरों की बस्ती के बीच बना है।
आदिवासियों में ऐसी मान्यता है घाटियों में उतरने से पहले अम्मा माई मंदिर पहुंच कर वहां स्थापित देवी माँ की आज्ञा एवं आशीर्वाद लेना पड़ता है।वहां का मनोरम दृश्य देखकर अब तक के सफर की थकान मिटाने की इच्छा हुई तो मंदिर परिसर में लगे छायादार पेड़ों के नीचे बैठ गए आराम करने,फिर ख्याल आया कि क्यों न ऐसे दृश्य को आपके साथ साझा किया जाय और फिर कैमरा निकाला और मंदिर परिसर में प्राचीन कलाओं से बनी देव आकृतियों के साथ हरियाली से सराबोर पहाड़ियों की कुछ तस्वीरें निकालने लगे,इतने में हमारी नजर एक नल नुमा पाईप से गिरते हुए पानी पर पड़ी जो वास्तव में न कोई नल था और न ही कोई पानी का बिजली उपकरण,थोड़ा करीब से जाकर देखने पर पता चला वो पाईप पहाड़ी की एक पतली सुरंग से लगी हुई है और उस सुरंग से सूक्ष्म जलधारा पाईप के माध्यम से नीचे बने कुंड में गिर रही है,बस्ती के लोगों से पूछने पर पता चला कि इस जलधारा का उद्गम कहां से हुआ है इसका रहस्य आजतक किसी को भी नहीं पता चल पाया और बस्ती के लोगों के पीने के साथ बाकी घरेलू कार्यों के लिए पानी का एकमात्र साधन यही जलधारा है,अब इसे कोई दैवीय कृपा कहें या प्रकृति के रहस्य ये हमें समझ में नही आ रहा था।
खैर!इतने सफर के बाद हमारा भी गला सूख रहा था,अब चूंकि हम मंदिर परिसर में थे तो जूते उतार कर हम पाईप के पास पहुंच गए प्यास बुझाने,वैसे तो हम पानी साथ में ले गए थे पर ऐसी अनोखी जलधारा का पानी पीने का जो आनंद है वो हाथ की अंजलि से ही आता है,उस पानी की शीतलता हमारे शरीर में करंट पैदा कर रही थी और उसकी मिठास हमे प्यास बुझने के बाद भी पानी पीने के लिए मजबूर कर रही थी।
लगभग 1 घंटे विश्राम के दौरान हमने कई बार हाथ पैर धुले और पानी पिया।
विश्राम के बाद हम हम फिरसे खाईयों की तरफ उतरने लगे और कुछ दूर समतल भूमि के बाद हमें फिर उन्हीं चट्टानी रास्तों पर उतरना था,दोपहर की कड़कती धूप में हमें वहां से गुजरते देख एक आदिवासी ने हमारे आने के कारण पूछा,हमारे बताने पर जब उसे पता चला कि हम शहद की खोज और आयुर्वेद की जानकारी के लिए वहां आए हैं तब उस आदिवासी ने बताया की उसके घर से मात्र कुछ दूर शहद का बड़ा छत्ता जंगली गूलर के पेड़ में लगा है,ये जानकर हमने अम्मा माई के आशीर्वाद के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और उस आदिवासी के साथ गूलर के उस पेड़ के पास पहुंच गए और ज्यादा देर न करते हुए टीम के सदस्य को किट पहनाई और शहद निकालने की तैयारी में जुट गए।
अभी हमारे टीम के सदस्य रामलाल पेड़ पर चढ़ कर शहद के छत्ते के पास पंहुचे ही थे इतने में बस्ती के दो बुजुर्ग आ गए और हमसे उतनी समय शहद न निकालने का आग्रह करने लगे क्योंकि वो पेड़ बस्ती से ज्यादा दूर नहीं था तो मधुमक्खियां बच्चों और जानवरों को नुकसान पंहुचा सकती थीं,उन्होंने कहा कि हम दोपहर के बजाय शाम को शहद निकाल लें क्योंकि पहाड़ियों के बीच की बस्तियों में शाम के समय धुंधला अंधेरा हो जाता है और अंधेरे में मक्खियां ज्यादा नुकसान नहीं पंहुचाती हैं,उनके निवेदन में विनम्रता देख कर हमने उनकी बात मान ली और रामलाल को नीचे आने के लिए बोला।
अब हमारे पास इतना समय नहीं बचा था की खाइयों में उतर सकें और शहद निकाल कर उजाला रहते वापस कुम्हड़ी पहुंच सकें।
इतने सफर के बाद बिना कुछ हासिल किए वापस भी नही जा सकते तो हमने खाइयों की शहद निकालने का लक्ष्य अगले दिन के लिए निर्धारित किया और मंदिर परिसर में बैठ कर गांववालों से बात करते हुए शाम होने का इंतजार करने लगे,उनकी बातों के बीच शाम कब हो गई पता ही नही चला,फिर हमने तुरंत रामलाल को किट पहनाकर पेड़ पर चढ़ने के लिए बोला और टीम के बाकी सदस्य दूसरी तैयारियों में जुट गए और शहद निकालने की प्रक्रिया शुरू की गई।
मधुमक्खियों का वो छत्ता आकर में बहुत ही बड़ा और मोटा था जिसमे से हमे लगभग 27 किलो शहद मिली जो कि बहुत कम ही देखने को मिलता है।
सफर के शुरुवात में ही ऐसी सफलता पाकर हम सबके चेहरे पर प्रसन्नता की हंसी थी।
अब अंधेरा काफी हो चुका था और उस घने अंधेरे में जंगलों के बीच से वापस कुम्हड़ी जाना हमारे लिए खतरे का कारण बन सकता था।
चूंकि बस्ती के लोगों का कुम्हड़ी आना जाना लगा रहता था तो हमारे टीम के सदस्यों से तो परिचित थे ही और उतनी देर में हमसे भी पारिवारिक संबंध बना चुके थे तो उन्होंने आग्रह किया कि रात्रि भोजन और विश्राम हम उनके घर पर करें।
अपना सौभाग्य समझते हुए हमने उनका निमंत्रण स्वीकार किया और उनके घर पर विश्राम के लिए रुके।
रात्रि भोजन में हमने चूल्हे की बनी गरम रोटी,घी,चटनी और कुटकी की दाल के साथ चावल का भोजन किया और वादियों के गोद में उस छोटी सी बस्ती में शीतल सुगंधित हवाओं के बीच रात्रि विश्राम किया।
आज के ब्लॉग में बस इतना ही,जल्दी ही मिलते हैं अगले ब्लॉग में पातालकोट की रहस्मयी धरती से मिले अमूल्य अनुभवों के साथ,तब तक के लिए बने रहिए हमारे साथ।