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खैर कहानी बहुत लम्बी है लकिन यहाँ हम बात करेंगे सिर्फ चापड़ा चटनी की जो छत्तीसगढ़ की शान है। हमारी टीम बस्तर से लगभग सात किलोमीटर दूर बड़े चकवा गांव में थी जो बस्तर और जगदलपुर के बीच में आता है। बस्तर , छत्तीसगढ़ के घने जंगलों और खूबसूरत वादियों में बसा हुआ, अपने अनूठे खान-पान और सांस्कृतिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध है। इस भूमि की हर एक कहानी में रहस्य और रोमांच का तड़का होता है। यहां की जनजातियों के बीच कई अनोखी कहानियां और परंपराएं आज भी जीवित हैं। उनमें से एक है 'छापड़ा चटनी' की कहानी, जो न केवल स्वादिष्ट है बल्कि रहस्यमय भी है। छापड़ा चटनी का नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है। यह चटनी लाल चींटियों से बनाई जाती है, जिन्हें स्थानीय भाषा में 'छापड़ा' कहते हैं। ये चींटियाँ साल के पेड़ों पर मिलती हैं और इनके अंडों से बनाई गई चटनी को विशेष माना जाता है। इसके स्वाद में खट्टापन और तीखापन का अद्भुत मेल होता है, जो किसी भी व्यंजन को खास बना देता है।
यहाँ हमारी मुलाकात डॉक्टर कमल किशोर कश्यप जी से हुई जिन्होंने अपना जीवन विभीन प्रकार की खेती, शिक्षा, तकनिकी शोध में समर्पित कर दिया है।
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डॉक्टर साहब को भारत सरकार से ढेर सारे पुरस्कार और उपलब्धिया प्राप्त हुई है। उनका मुख्य फोकस मिलेट्स (अनाज), छापड़ा चटनी (लाल चींटी की चटनी) और तकनीकी खेती पर है और ये मानना है कि इन क्षेत्रों में अगर सही तरीके से काम किया जाए, तो किसानों की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव लाया जा सकता है। मिलेट्स, जिसे हम मोटे अनाज के रूप में भी जानते हैं, एक ऐसा खाद्यान्न है जो सूखे और कठोर परिस्थितियों में भी उग सकता है। यह पोषक तत्वों से भरपूर होता है और इसमें प्रोटीन, फाइबर, विटामिन और मिनरल्स की प्रचुर मात्रा होती है। उसी प्रकार लाल चींटी की चटनी, जिसे छापड़ा चटनी कहते हैं, वहां के लोगों के भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। डॉ. साहब ने देखा कि यह चटनी न केवल स्वादिष्ट होती है, बल्कि इसमें औषधीय गुण भी होते हैं। लाल चींटियाँ और उनके अंडे प्रोटीन, विटामिन बी12, एंटीऑक्सिडेंट्स और फोलिक एसिड से भरपूर होते हैं। इसके औषधीय गुण विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं जैसे अपच, पेट दर्द और अन्य संक्रमणों में राहत दिलाते हैं। जनजातीय समुदाय इस चटनी को पारंपरिक चिकित्सा के रूप में भी उपयोग करते हैं। अगर इस चटनी का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाए और इसे मार्केटिंग के जरिए देशभर में पहुंचाया जाए, तो यह किसानों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन सकता है।
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चापड़ा चटनी बनाने की लिए सबसे पहले, साल, आम वगैरह के पेड़ों से लाल चींटियों और उनके अंडों को इकट्ठा किया जाता है। यह काम आदिवासी लोग सावधानीपूर्वक करते हैं। पेड़ों पर चढ़कर, वे पत्तों और शाखाओं से चींटियों के घरों को सावधानीपूर्वक निकालते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत धैर्य और अनुभव की आवश्यकता होती है। इकट्ठा की गई चींटियों को साफ किया जाता है। इन्हें पानी में डुबोकर धोया जाता है ताकि मिट्टी और अन्य गंदगी निकल जाए। इसके बाद, चींटियों को छानकर अलग कर लिया जाता है।
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अब चटनी बनाने की अन्य सामग्री तैयार की जाती है। लहसुन और प्याज की कलियों को छीलकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। मिर्च को भी धोकर काट लिया जाता है। धनिया पत्तियों को धोकर बारीक काट लिया जाता है। नींबू का रस निकालकर अलग रख लिया जाता है।
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अब सभी सामग्री को एक साथ मिलाकर पीसने की प्रक्रिया शुरू होती है। पारंपरिक तरीके से इसे सिलबट्टे पर पीसा जाता है, जिससे चटनी का स्वाद और भी निखरता है। पहले मिर्च और लहसुन को पीसा जाता है, फिर इसमें चींटियाँ और उनके अंडे डाले जाते हैं।
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धीरे-धीरे सभी सामग्री को पीसकर एकसार कर लिया जाता है। इसमें नमक और नींबू का रस मिलाया जाता है और फिर से पीसा जाता है ताकि सभी अवयव अच्छे से मिल जाएं।
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अब छापड़ा चटनी तैयार है। इसे एक बर्तन में निकाल लिया जाता है। इसका खट्टा और तीखा स्वाद न केवल जीभ को तृप्त करता है, बल्कि इसके औषधीय गुण भी शरीर को फायदा पहुंचाते हैं। यह केवल एक भोजन नहीं है, बल्कि उनकी संस्कृति और परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। विशेष अवसरों और त्योहारों में इसका उपयोग किया जाता है। यह चटनी उनके लिए एक प्रकार की पहचान है, जो उनकी संस्कृति और जीवन शैली को दर्शाती है। आजकल, छापड़ा चटनी न केवल बस्तर में बल्कि पूरे देश में लोकप्रिय हो रही है। इसके अनूठे स्वाद और स्वास्थ्य लाभों के कारण लोग इसे बड़े चाव से खाते हैं।
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हालांकि, इसका पारंपरिक तरीका और परंपराएं अभी भी आदिवासी समाज में जीवित हैं और वे इस कला को अगली पीढ़ी तक पहुंचा रहे हैं। जनवरी २०२४ में ओडिशा की लाल चींटी चटनी को हाल ही में भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मिला है। भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग किसी उत्पाद को उस विशेष भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ता है जहाँ वह उत्पाद विशिष्ट गुणों या प्रतिष्ठा के कारण प्रसिद्ध होता है। यह जीआई टैग न केवल इस विशिष्ट खाद्य पदार्थ की पहचान को मजबूत करता है, बल्कि इसके सांस्कृतिक महत्व को भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाता है।